विचारों और तुष्टिकरण के बाजारवाद में भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप

विचारों और तुष्टिकरण के बाजारवाद में भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप विचार क्या हैं ? विचारों की सीमाएं क्या है ?? विचारों की प्रसांगिकता क्यों जरूरी है लोकतंत्र में ??कैसा विचार आज के नए भारत के निर्माण में उपयोगी होगा ?? संविधान सम्मत विचार के लिये भारत के बुद्धिजीवी वर्ग की नीति और उनकी नियत कैसी है ??सवालों के दायरों में उलझकर सिर्फ हम सवाल कर सकते हैं समाधान के दायरे के हर दरवाजे खोलने होंगे ताकि एक स्वस्थ लोकतंत्र आने वाले भविष्य में नए भारत के निर्माण में अपना योगदान दे पाएं । तुस्टीकरण का मतलब है एक खास समूह यानी विशेष जाति और धर्म को किसी तरह उसका एक सुनियोजित तरीके से उसका प्रचार-प्रसार या उपयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिये हो । विचार और तुस्टीकरण के कॉकटेल में बाजारवाद आग में घी का काम करता है । आम आदमी की बौद्धिक दृष्टिकोण कोहै बाजारवाद ने काफी बदल दिया और राजनीतिक पार्टियों ने खोखले विचारों से जाति और धर्म के बीच खाई को और गहरा किया है । मीडिया मतलब टीवी ,रेडियो ,प्रिंट नहीं सोशल मीडिया भी जहाँ सूचनाओं का अंबार के साथ-साथ हेट स्पीच उसमें गलत तथ्यों की जानकारी या किसी एक विचार के लोगों दूसरे लोगों के प्रति घृणा का नंगा पर्दशन होता है जिससे उनके मानसिक पटल पर गहरा प्रभाव पड़ता है। मानसिक तौर पर भारत के ये लोग जो घृणा से पीड़ित हैं वो समाज के लिए खतरा है या कह सकते हैं घृणित विचारों की खेती से इंसान घृणित रोबोटिकरण का अखाड़ा परिषद का निर्माण करते जा रहे हैं जो मानवता के लिए खतरा है। इस खतरे से निपटने के लिए समाज मे स्वतंत्र और सकारात्मक सोच को बड़े पैमाने पर प्रचार प्रसार करने की जरूरत है ताकि इंसान में इंसानियत बची रहे । स्वाधीनता विचारों में सिंचित करने की जरूरत है ताकि बाजारवाद के दायरों को समझने में सहूलियत हो और स्वतंत्र शिक्षा के माध्यम से स्वराज्य हर व्यक्ति तक हर स्तर पर इसके मायने को लेकर मंथन करने की जरूरत है ।

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